कोहरा या कुहासा
कोहरा कहो या फिर कुहासा —
जब बहुत ज़्यादा हो जाए तो शीतलहरी ही कह लो।
थोड़ा बूँद से ठोस की ओर बढ़ चले तो पाला कहते थे हम।
पाला पड़ना कितना आम था लोकोक्तियों में —
शायद पहाड़ों की बर्फ़बारी के सापेक्ष।
मगर इस धुएँ-नुमा ठंड के मौसम में
हम बच्चों का सबसे बड़ा कौतूहल होता था —
मुँह से निकलता गरमा-गरम धुआँ।
किसके मुँह से जितना गाढ़ा धुआँ,
उसकी उतनी ही धाक।
कभी आईने पर जमती ओस की परत पर
उकेर देते कोई आकृति — गोल, तिरछी,
या नयी-नयी सीखी गई क की मात्रा।
कभी हवा में उड़ा देते उसे,
और देखते रहते,
विलीन होती उस रेखा को बादल में।
जब कोहरे की घनत्व बढ़ जाती,
तो खुले मैदानों में लुका-छिपी खेलते थे हम —
या कल्पना करते कि स्वर्ग का राज्य
शायद ऐसा ही होता होगा — देवलोक में,
जहाँ परदे की ज़रूरत ही न पड़ती हो।
टीवी पर दिखते स्व