ध्यान दें, आपका भगवान को खोजने जाना साधन मार्ग है, भगवान का आपको खोजते आना संबंध मार्ग, समर्पण मार्ग है। साधन वही जो संबंध-समर्पण तक पहुँचा दे।
आज सुतीक्ष्ण जी का कोई नहीं रहा, परिवार तो पहले ही नहीं था, गुरु जी थे, उन्होंने भी त्याग दिया। गुरु जी की याद में तड़प रहे थे कि सूचना मिली, भगवान आ रहे हैं। सुतीक्ष्ण जी विचार करने लगे कि दर्शन कैसे हो?
व्याकुल होकर कभी इस मार्ग पर दौड़े, कभी उस मार्ग पर, खूब दौड़े, खूब दौड़े, फिर विचार आया, वे तो उसके हैं जिसका उनके सिवा कोई नहीं है।
"एक बानि करुणानिधान की।
सो प्रिय जाहि न गति आन की॥"
बस रास्ते में ही बैठ गए, रास्ते पर बैठे हैं, रास्ता नहीं छोड़ा। और भी, वे सीधे ही नहीं बैठ गए, पहले दौड़े फिर बैठे हैं। उनका बैठना साधन से उपलब्ध विचार का, समर्पण का फल है, आप पहले से ही बैठें हों, तो अपना बैठना उन जैसा बैठना मत समझ लेना।<